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लेखनी कहानी -26-Oct-2022 सिटी पार्क

यह पहला अवसर था जब दीपावली के अगले दिन यानि कि 25 अक्टूबर को खाली दिन था । जहां तक मेरी याददाश्त है , जीवन में शायद यह पहली बार हुआ था जब दीपावली के अगले दिन "गोवर्धन पूजा" नहीं थी इसलिए घर में कोई काम धाम भी नहीं था । और तो और सूर्य ग्रहण होने के कारण पूरा शहर वीरान पड़ा हुआ था । जयपुर शहर कभी त्यौहारों के अवसर पर ऐसा नजर नहीं आया था जैसा कल नजर आ रहा था । एक विधवा स्त्री की तरह निस्तेज , ॠंगार हीन , गुमसुम, सुस्त । वरना तो यह एक नव वधू की तरह उमंग, उल्लास, उत्तेजना से खिला खिला रहता था । सूर्य ग्रहण के कारण बाजार बंद था और लोग भी घरों में दुबके पड़े थे । 

मेरी सेवानिवृत्ति होने पर मैंने अपने मौहल्ले के सेवानिवृत्त लोगों का एक "क्लब" बना लिया था जिसमें हम सात आठ लोग रोज शाम को सवा पांच बजे से साढे छ: बजे तक गपशप करते हैं और मस्ती से गाने गाते हैं । ऐसा लगता है जैसे कॉलेज के दिन वापस लौट आये हैं । बस कमी है तो अदद एक "छमिया भाभी" की । काश , मेरी रचनाओं की पात्र "छमिया भाभी" उस क्लब की सदस्य होतीं तो पता नहीं कितना धमाल होता ? 

मैं जैसे ही क्लब से तरोताजा होकर घर आया वैसे ही श्रीमती जी ने आदेश सुना दिया "सिटी पार्क" चलेंगे घूमने । पत्नियां कभी सलाह मशविरा नहीं करती हैं, सीधा आदेश सुनाती हैं । मैं आश्चर्य चकित रह गया । मैंने कहा "आज तो सूर्य ग्रहण है आज कैसे बाहर जा सकते हैं" ? 
"वैसे ही जैसे आप अभी अपने क्लब गये थे" । 

एक ही वाक्य में चित्त करने की कला में माहिर होती हैं ये पत्नियां । मैं निशब्द हो गया । वैसे इच्छा मेरी भी थी कि "सिटी पार्क" घूम आया जाये । अभी 21 अक्टूबर को ही तो माननीय मुख्यम॔त्री महोदय ने इसका "लोकार्पण" किया था । फिर घर में "वेल्ले" भी तो बैठे थे सब लोग । कोई जमाने में खाली टाइम में हम लोग "अंत्याक्षरी" खेलते थे मगर आजकल लोग खाली टाइम में घूमने जाते हैं । 

हम साधारण सी पोशाक में थे और उसी में ही जाने की सोच रहे थे कि इतने में श्रीमती जी का एक दनदनाता बाउंसर आया । क्रिकेट के मैच में तो एक अंपायर नाम का "जीव" होता है जो उस बाउंसर को "नो बॉल" करार दे सकता है मगर "घरेलू क्रिकेट" में बीवी ही बॉलर, विकेटकीपर, फील्डर, अंपायर सब कुछ होती है और बच्चे दर्शक जो हमेशा अपनी मम्मी की ही तरफदारी करते हैं और हम पाकिस्तानी बल्लेबाज की तरह बस शिकायत करके ही रह जाते हैं । उन्होंने कहा "इन्हीं कपड़ों में अगर चलना है तो फिर आप रहने दो" 
"क्या खराबी है इन कपड़ों में ? और अब कौन सी कोई लड़की देखने जाना है ? अब तो बेटे की भी शादी हो चुकी है" । हमने माहौल खुशनुमा बनाने की कोशिश की । 
"रहने दो आप तो । मुझे देखने आये थे तब फटे मोजे पहन कर आये थे । इतना भी सेंस नहीं था कि लड़की देखने जा रहे हैं तो कम से कम मोजे तो ढंग के पहन लेते" ? 

हमारे पास खिसियाने के अलावा और कुछ बचा नहीं था । झेंप मिटाने के लिये बोले "देवी जी, यही देखने के लिए फटे मोजे पहने थे हमने कि आपका ध्यान मुझ पर रहता है या हमारे फटे मोजों पर ? पर आपको तो शादी हमसे नही मोजों से करनी थी इसलिए आपने मुझे नहीं मोजों को ही देखा और फटे मोजे पसंद भी आ गये आपको" । अब तीर छोड़ने का अवसर मुझे भी मिल गया था । तीर सही निशाने पर लगा था । 
"जाओ जाओ, हमने तो मेहरबानी करके हां कह दी थी वरना कुंवारे ही डोलते रहते अब तक" हंसते हुए कहने लगीं वे ।
"शुक्रिया मोहतरमा मुझे कुंवारेपन के अभिशाप से बचाने के लिए" 
"ओके ओके । अब चुपचाप कपड़े बदल लो । इन कपड़ों में नहीं ले जाने वाली मैं, हां" 
"तो कौन से कपड़ों में ले जाओगी" ? 

और उन्होंने एक जोड़ी कपड़े निकालकर हमारे हाथ में थमा दिये । "इनमें आप बहुत जंचते हो" । मुस्कुराकर कहने लगीं 
"अभी भी" ? 
"और नहीं तो क्या ? अभी भी 'करारे' लगते हो" । कहकर बलैंया लेने लगीं वे । 

धन्य हैं पत्नियां । ये पतियों को सदैव जवान बनाये रखती हैं । मैं कुछ कहता इससे पहले बेटा बहू तैयार होकर आ गये और हमारा पोता "शिवांश" को हमारे हाथों में सौंपते हुए कहा "इसे आप रख लो पापा" 

हमारी तो बांछें खिल गईं । दादा पोते की खूब पटती है आजकल । अभी 11 महीने के होने वाले हैं शिवांश । 29 को हो जायेंगे । आजकल हम दोनों खूब सुर में सुर मिलाते हैं । मैं जैसे ही अपने कमरे में "स्टारमेकर" पर कोई गाना गाने लगता हूं तो मेरी आवाज सुनकर "घुटने घुटने" दौड़े चले आते हैं शिवांश और फिर वे मेरे सुर में सुर मिलाने लगते हैं । उनकी आवाज मेरे गानों में शामिल हो जाती है तो बड़ा अच्छा लगता है । 

हमारा काफिला निकल पड़ा । सिटी पार्क पहुंचते ही ऐसा लगा जैसे पूरा जयपुर शहर वहां उमड़ पड़ा हो । जैसे मूसलाधार बरसात करने के लिए सारे बादल इकठ्ठे हो गये हों और उन्हें देखकर लोग डर रहे हों । भीड़ के रेले को देखकर ऐसा लगा जैसे पूरा जयपुर ही "वेल्ला" बैठा था । हम अपनी गोदी में शिवांश को लेकर आगे बढ़े । सिटी पार्क की ऐण्ट्री वाकई बहुत शानदार थी । लाइटिंग और फव्वारों का नजारा बहुत मनोहारी था । आजकल लोगों को "सेल्फी" नामक भयंकर बीमारी हो गई है । ना जाने कितनी सेल्फी लेते हैं लोग । लोग जितने दीवाने सेल्फी के हैं उतने तो छमिया भाभी के भी नहीं हैं । बेचारी छमिया भाभी ! हमें बड़ा तरस आया छमिया भाभी पर । पर हम करें भी तो क्या करें ? 

भांति भांति के लोग और उससे भी ज्यादा भांति के परिधान । मेरी निगाहें बरबस परिधानों पर चली गई । पुरुष और लड़के सब मर्द लोग फुल पैंट में थे और शर्ट फुल या हाफ स्लीव्ज की थीं । इतने सभ्य कपड़े पहने हुए थे पुरुषों ने कि मेरा मस्तक गर्व से ऊंचा हो गया । कर्म चाहे कैसे भी हों लड़कों के पर ड्रेस तो बहुत सलीके की पहनते हैं ये । 

उधर लड़कियों ने माशाल्लाह छोटी छोटी स्कर्ट, नेकर, टॉप वगैरह पहने हुए थे । कुछ "अंदरूनी वस्त्र" भी बाहर झांककर अपनी उपस्थिति बता रहे थे । अधिकांश औरतों ने सलीके के कपड़े पहने थे पर कुछ "चंचलाएं" कुछ अधिक ही "चहक" रही थीं । मैंने नोट किया कि लड़कों की फौज भी "वहीं" पर ज्यादा थी जहां तितलियां ज्यादा खुली हुईं थीं । तो इसका मतलब ये हुआ कि वे हसीनाएं शमा पर जलने के लिए परवानों को आमंत्रित कर रही थीं ? पता नहीं पर आगे पीछे लड़कों की फौज देखकर लड़कियां बहुत खुश होती हैं । शायद इसीलिए ऐसे कपड़े पहनती हैं । अब चाहे कोई हमें कुछ भी कहे, दकियानूसी या संकीर्ण, मगर एक लेखक होने के नाते मन के भावों को लिखना मेरी जिम्मेदारी भी है । 

जो लॉन अभी तीन दिन पहले बड़ा शानदार था वह बेचारा इस भीड़ के रेले को सहन नहीं कर सका और धराशायी हो गया । लोग रास्तों के बजाय अपनी मर्जी से चलते हैं । इस कारण सैकड़ों पौधे असामयिक मृत्यु को प्राप्त हो गये । बहुत सी स्टेच्यु लगी हुईं थीं वहां पर , लोग उन पर चढ चढ कर , लूमकर, लटककर फोटो खिंचवा रहे थे या सेल्फी ले रहे थे । पता नहीं कैसी मानसिकता है हम लोगों की कि घर की वस्तुओं को हम खराब नहीं करते मगर सार्वजनिक चीजों का "सत्यानाश" करने पर हमेशा तुले रहते हैं हम । मैं भगवान से प्रार्थना करने लगा कि "प्रभो, कुछ दिन तो इस पार्क को नया सा रहने देना । ये "कपि सेना" अशोक वाटिका की तरह "सिटी पार्क" उजाड़ने आ गयी है , आज इसकी रक्षा कर लेना । पर शायद भगवान जी ने भी हाथ खड़े कर दिये थे । 

पार्क में ट्रैकिंग का लगभग चार किलोमीटर का रास्ता था जो मॉर्निंग वॉकर्स के लिए बनाया गया था , जिस पर महीन खुरदरी रेत बिछी हुई थी । लोगों की भीड़ के कारण वह खूब उड़ रही थी और "लिपे पुते" चेहरों पर आसन ग्रहण कर रही थी । इससे सौन्दर्य में और निखार आ गया था । शायद नमकीन चेहरों का मिजाज भी इसलिए "नमकीन" हो गया था । चांद से चेहरों, कातिल निगाहों , जानलेवा अदाओं और महकती मुस्कानों से पता नहीं कितने लोग "शहीद" हुए होंगे वहां पर ? आशिकों का कोई "शहीद स्मारक" तो होता नहीं है । अगर होता तो शायद हर आदमी का नाम उसमें लिखा होता । 

शिवांश ने भी खूब एन्जॉय किया था । बाद में उन्हें नींद आने लग गई । हम भी पैरों से उड़ने वाली धूल से थोड़े से तिक्त हो रहे थे इसलिए हमने वापस लौटने का मन बना लिया । वैसे, वहां पर लगे विशाल तिरंगे को देखकर सिर गर्व से ऊंचा और सीना चौड़ा हो गया । 

श्री हरि 
26.10.22 


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7 Comments

Khan

28-Oct-2022 07:12 PM

Nice 👌🌸

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बहुत ही उम्दा यात्रा वृत्तांत sir,,, एकदम सटीक और सजीव चित्रण

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Gunjan Kamal

26-Oct-2022 10:35 PM

सुंदर लेखन

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